जमीयत उलेमा-ए-हिंद की कार्यकारिणी की बैठक में एक ऐसा बयान सामने आया जिसने राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी। संगठन के अध्यक्ष मौलाना अरशद मदनी ने कहा – “देश में अदालतों की कोई ज़रूरत नहीं है”, और इसके साथ ही उन्होंने मौजूदा सरकार और न्याय व्यवस्था पर तीखा हमला बोला।
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इस बयान के पीछे क्या वजह है?
मौलाना मदनी ने कहा कि मुसलमानों की समस्याएँ अब एक-दो नहीं, बल्कि एक अंतहीन सिलसिला बन गई हैं। उन्होंने आरोप लगाया कि जैसे ही हर विवाद का समाधान होता है, एक नया विवाद खड़ा हो जाता है। मुसलमानों पर सुनियोजित तरीके से हमले किए जा रहे हैं और सरकार की प्राथमिकता सिर्फ़ “हिंदू-मुस्लिम” की राजनीति है।
असम में बुलडोज़र कार्रवाई पर गुस्सा
बैठक में असम में मुस्लिम बस्तियों पर की जा रही बुलडोज़र कार्रवाई का भी ज़िक्र किया गया। मदनी ने इसे संविधान और कानून का गला घोंटना बताया। उन्होंने दावा किया कि धर्म के आधार पर 50,000 से ज़्यादा मुस्लिम परिवार बेघर हो गए हैं और उन्होंने सुप्रीम कोर्ट से स्वतः संज्ञान लेने की अपील की।
भारत फ़ासीवाद की गिरफ़्त में
मौलाना मदनी ने कहा कि भारत अब फ़ासीवादी ताक़तों की गिरफ़्त में है। सांप्रदायिकता को देशभक्ति का नाम दिया जा रहा है। अत्याचारियों को क़ानून के शिकंजे से बचाया जा रहा है। उन्होंने कहा कि “इतिहास गवाह है कि जो समुदाय अपनी पहचान और धर्म के साथ जीना चाहता है, उसे कुर्बानियाँ देनी पड़ती हैं।”
अदालतों पर सवाल क्यों?
मदनी ने कहा कि जब अदालतें अल्पसंख्यकों को न्याय नहीं दे पा रही हैं, जब संविधान की रक्षा नहीं हो रही है, और जब सरकार ख़ुद पक्षपात कर रही है, तो अदालतों की उपयोगिता पर सवाल उठना स्वाभाविक है। मौलाना मदनी के इस बयान को न सिर्फ़ एक भावनात्मक प्रतिक्रिया बल्कि एक राजनीतिक चेतावनी भी माना जा रहा है। इससे पता चलता है कि देश का एक बड़ा वर्ग न्यायिक व्यवस्था और सरकार से बेहद असंतुष्ट है।
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